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Showing posts from October, 2019

दो आंखें बारह हाथ - सामजिक सुधार का संदेश देती फ़िल्म

जेल एक ऐसी जगह, जहां इंसान अपने किए गए गुनाहों की सजा काटता है, लेकिन इस बात कि क्या गांरटी है कि वहां से बाहर आने के बाद उसे अपने किए का पछतावा हो और वो फिर अपराध ना करे और सुधर जाए। कोई किन परिस्थितियों में अपराधी बना और उसका मनोविज्ञान जानना भी बेहद ज़रुरी है ताकि समाज में अपराध होने से रोका जा सके। कुछ सालों पहले पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने तिहाड़ जेल में सुधार अभियान चलाया था, उनके कठिन परिश्रम के सकारात्मक परिणाम निकले थे।  यूं तो अपराधी और कैदी ये शब्द आम लोंगो के लिए किसी खौफ से कम नहीं होते है, क्योंकि वो अपराध का शिकार होने से डरते है जो कि स्वाभाविक भी है। इन्हें सही रास्ते पर लाना और सुधार करना हर किसी के बस की बात नहीं होती है। इसी थीम पर साल 1957 में वी शांताराम ने “ दो आंखे बारह हाथ नाम ” नाम से फिल्म बनाई।कहा जाता है कि महाराष्ट्र की खुली जेल के हुए प्रयोग से प्रेरणा लेते हुए ये फ़िल्म बनीं थी। इस फिल्म में ना तो कोई ग्लैमर था ना ऑयटम गीत, ना ही अपराध का महिमामंडन या कोई मसालेदार कहानी। एकदम सीधी सादी पटकथा के साथ ये फिल्म बनाई गई। ये कहानी है

आज भी प्रासंगिक है महिला सशक्तिकरण पर बनीं ये फ़िल्में

        जब भी हम महिला सशक्तिकरण की बात करते है तो दामिनी, क्वीन, फैशन, पेज थ्री, पिंक, पिकू, कहानी, नो वन किल्ड जेसिका, इंग्लिश विंग्लिश, मर्दानी, जैसी फ़िल्में का नाम ज़हन में आता है। सचमुच इन फिल्मों में महिलाओं से जुड़े विभिन्न मुद्दों को बड़े ही सशक्त ढंग से उठाया गया है साथ ही ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही है इन फ़िल्मों के अलावा कुछ ऐसी फ़िल्में भी है जिन्हें महिला प्रधान विषयों पर बनीं सदाबहार फिल्मों का दर्जा दिया जा सकता है जो अपने प्रर्दशन के सालों बाद भी प्रासंगिक है। अनपढ़- 60 के दशक में रिलीज़ इस फ़िल्म में माला सिन्हा ने लीड रोल निभाया था। इस फ़िल्म में इस मुद्दे को उठाया गया था कि एक लड़की की बिना पढ़ाए लिखाए अगर शादी कर दी जाती है तो उसे ज़िंदगी में कितनी मुसीबतों का सामाना करना पड़ता है। कभी कभी ना उसे अपने पति का प्रेम मिल पाता है ना वो सम्मान जो उसे अपने ससुराल मिलना चाहिए। अगर उसका पति उसे प्रेम करे भी तो उसके जीवित ना रहने के बाद एक स्त्री की क्या दशा हो जाती है इन्हीं मुद्दों के इर्द गिर्द ये फ़िल्म घुमती है। कुल मिलाकार महिलाओं को शिक्षित क

ज़िंदगी के लिए आपका नज़रिया बदल देंगी ये फ़िल्मे

      आज हम अपने लेख के ज़रिए उन बॉलीवुड की फ़िल्मों के बारे में बात करेंगे जो कि ज़िंदगी को बिल्कुल अलग तरह से समझने की कोशिश करती है और सोचने पर मजबूर करती है। ये फिल्में यह बात भी समझाने का प्रयास करती है कि जीना किसे कहते है। आनंद- इस फ़िल्म का नाम ही खुशी देने वाला है। ऋषिकेश मुखर्जी जो कि हल्की फुल्की मनोरंजक और सार्थक फिल्म बनाने के लिए मशहूर है उनकी फिल्म भी “ आनंद ” भी इसी श्रेणी में आती है। इस फिल्म का नायक जो कि इस दुनिया में कुछ ही दिन का मेहमान ये जानते हुए भी शोक मनाने के बजाए हर पल को खुशी खुशी बिताना चाहता है और अपनी खुशियां औरों के साथ बांटने में यकीन करता है इस फिल्म में कई गीत है जो ज़िंदगी के संतरंगी रंगो को उभारते है , जैसे “ ज़िंदगी कैसी है पहेली ” , “ मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने ” “ कहीं दूर जब दिन ढल जाए ” शायद ही कोई इंसान होगा जिसने ये गीत सुने और पसंद ना किये हो। आनंद को राजेश खन्ना की सबसे बेहतरीन फिल्म कहा जाए तो गलत नहीं होगा इस फिल्म के डॉयलाग्स भी काफी मशहूर हुए जो ज़िंदगी को सही तरह से परिभाषित करते है। “ बाबुमोशाय ज़िंद

वो बॉलीवुड फ़िल्में जिनमें हिंदी साहित्य बना प्रेरणा

                                                    हम कई फ़िल्में देखते है जिसमें हमें ये पता चलता है कि हमारी हिंदी फिल्मी किसी विदेशी पुस्तक पर आधारित है, विदेशी साहित्य भी कहानी के मामले में काफी समृद्ध है लेकिन उस कहानी का भारतीयकरण करते करते कहीं ना कहीं उसकी मौलिकता और स्वाभाविता वो कमाल नहीं कर पाती है जो भारतीय परिवेश पर लिखी गई कहानी प्रभावशाली ढंग से कर पाती है। वैसे तो विदेशी साहित्य भारतीय फिल्मों का प्रिय विषय रहा है लेकिन हिंदी साहित्य भी इस मामले में पीछे नहीं है अपने इस लेख के ज़रिए हम हिंदी साहित्य के उन लेखकों की बात करेंगे जो बने हिंदी फिल्मों की प्रेरणा। प्रेमचंद- उपन्यास सम्राट के नाम से मशहूर प्रेमचंद के उपन्यास में तत्कालीन मध्यमवर्गीय समाज, उस काल की सामाजिक व्यवस्थाओं और समस्याओं का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है। उनके उपन्यास “ गबन ” पर इसी नाम से 60 के दशक में फिल्म आई जिसमें सुनील दत्त और साधना ने अभिनय किया था। ब्रिटिशकालीन भारत के बैकड्राप पर बनी ये फिल्म ऐसे मध्यमवर्गीय युवक की कहानी है जो अपनी पत्नी की सोने का हार पाने की इच्छा पूरी क